सोमवार, 15 अगस्त 2011

ek chehra

एक चेहरा
एक चेहरा
(मौत की दहलीज्ञ को पकड़े हुए बैठा रहा
उम्र जाने कब दबा कर पॉव आगे बढ़ गई)
उम्र ने झुर्रियाँ उकेर कर
बनाया था एक चेहरा
एक जीटा जागता टेरीकोटा
हरेक संघर्ष की झुर्री !
उसने इस्तीफ़ा तो पहीले ही
भेज दिया था
पर वह मंजूर नही हुआ
लौटा दिया था उपर वाले ने
कहा था खंडहर का क्या करेंगे
अर्थहीन प्रक्रिया होगी
खुरचन से काम चलाते रहो
वालन्ट्री रिटायरमेंट का
कोई प्रावधान नही है !
कहाँ तक चिल्लाकर बात करें
घर वाले बाहर वाले
कोलाहल पर लकीर फेर कर
दूर बैठा दिया है उसने
भजन में मन लगाने के लिए
लेकिन कान तो बजते ही रहते हैं
रात दिन
जाने कौन कौन सी
भूली बिसरी आवाज़ों की परछाईयाँ
पीछा करती रहतीं है !
बिचारी जीभ लड़खड़ा जाती है
शब्द उलझ जाते हैं
कोई सार्थक वाक्य बनता ही नहीं
सुनने वाला क्या समझे
झुंझल आने लगती है
अपने ही ऊपर !
कुछ खाता हूँ तो
ओठों के कोने से
लार टपक जाती है कपड़ों पर
कोई कहाँ तक बदले
कहाँ तक धोए
आगंतुक का चेहरा
देखा सा लगता है
नाम याद नहीं आता
बिचारा थोड़ी देर तक
बैठ कर चला जाता है
इतना में अचानक एक
खिड़की खुलती है
अरे वे तो मुन्ने मियाँ थे
मेरे बचपन के दोस्त
आँखों के गड्डो से
केवल झाईं दिखती है
चेहरा नही दिखता
पर दिखते रहते हैं
वे सपने जिनमें से
गुजरती रहतीं है यादें
जब मुन्ने मियाँ से
बैठ कर बातें करते
गुजर जाया करती थी
चाँदनी रात !!!!!
शिवनारायण जौहरी विमल

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