मंगलवार, 27 जुलाई 2010

जिजीविषा--------विहान

विहान
घूँघट हटाते रूप के सौंदर्य को
हर पल भिंगोती बांसुरी की धुन
वारूणी सी पी रही मधुमास की
पायल थिरकती जा रही रून-झुन ।
बादलों के दो रूपहले शावकों से
खेलती है उषा की सोनार अलकें
प्यास के गीले अधर ज्यों चूमते हों
भोर की अधखुली पलकों के किनारे।
क्षितिज से माँग कर लाई पवन ज्यों
तुम्हारे चरण धो कर पी रही ऊषा सुनहरी
धरा की सांस को नहला रहा गंधी परागन
दिशाएँ चूमतीं मदहोश पागल सी रंगीली ।
एक पंछी पंख फैला उड. रहा आकाश में
चिरपिराती झाडियों में छोडकर अपना बसेरा
रात के सपने सुनाए जा रही चिडिया बसंती
नदी तट पर नया जीवन ले रहा अंगडाईयाँ सी।।।।।
शिवनारायण जौहरी विमल