बुधवार, 21 जुलाई 2010

जिजीविषा

क्या किया अस्सी बरस तक
कभी बादल बने बरसे
प्यास धरती की बुझाई
भूख को क्या
बाल गेंहूँ की कभी तुमने खिलाई
नहीं तो फिर बेशरम सी
जिन्दगी किसलिए
किसके लिए
कब तक जियोगे
घाव के मरहम बने क्या
अधर को मुस्कान पहनाई
गुदडियों के लाल को तुमने
जिगर से अपने लगाया क्या
मैल मन का धो सके
क्या तुम किसी के
क्या सहारा दे सके किसी को
गर्त से ऊपर उठाया
भार बन कर इस धरा का
खून अब कब तक पियोगे
और अब कब तक जियोगे
रात कीलों पर सुलाकर
चरमराती हड्डियों को
दर्द से नहला धुला कर
टूटते अरमान झूठी
आस्था के व्दार रख कर
कराहों में लपेटे पल
और अब कब तक जियोगे
अभी तक तो रहे आए
तुम स्वयं से भी अकेले
योजना तुम से निकल कर
बस तुम्हीं पर टूट जाती थी
मैं कभी हम हो नहीं पाया
गीत तुमने एक अपना
ही सदा गाया बजाया
आत्म श्लाघा के लिए
अभी कुछ और बाकी है
विष वारूणी है यह
इसे अब और क्यों
किसके लिए पीते रहोगे
शिवनारायण जौहरी विमल

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