बदलते हुए ऊषा के
रंगों से भीग कर
गूँजती शहनाई से
दूर दूर प्रान्तर में
स्वर मिलाती हुई
तरंगायित लहरों पर
गुलाबी सी कोर लगा
नव-जात शिशु जैसा
झाँकता सबेरा ।
किसलय से मकरंदित
वायु के झकोँरोँ ने
फूलों लदी डाली से
बरसाए सुमन और
हरी-भरी धरती को
चादर से ढाँक दिया।
नींद में मचल रहे
किलबिल से जीवन की
भूख को बुझाने चले
चुग्गा को ढूँढ रहे
उन फैले डैनों से
लिपट गया ऊषा
के आँचल को
चूमता सबेरा।
और वहीं गोदी में
सुनहले से पारदर्शी
प्यार ने दुलार ने
कर लिया बसेरा
मुस्काते तुतलाते
अस्फुट स्वरों में सना
दिन का वह बचपन ही
बचपन था मेरा।।।।।।
शिवनारायण जौहरी विमल
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